शनिवार, 19 दिसंबर 2009

फितरत








सभी पहाड़ एक से नहीं होते .....कुछ ऊचे तो कुछ कम लम्बे होते हैं ....कुछ हरे भरे और कुछ...... कुछ उजड़े ...कुछ हमेशा ...हर मौसम में एक से ही रहते हैं ....






कुछ पहाड़ रंग भी बदलते हैं ...जैसे जैसे आसमान की चमकती गेंद पाला बदलती है वैसे ही ये भी बदल जाते हैं ....









सभी पहाड़ दूसरी तरफ गुजरने की इजाज़त नहीं देते .....जैसे हुकूमत करते हैं ......
हाँ ! कुछ पहाड़ों में मोड़ भरे छोटे ....लेकिन टेढ़े -मेढ़े रास्ते होते हैं ...गुज़रते समय डर का एहसास करवाते हैं ...ये ... ।






सभी पहाड़ सूखे नहीं होते ...घने दरख्तों ....खुशबूदार फूलों और फलों से भरे होते हैं ....



और कुछ हरियाली ओढ़े हुए भी सूखे होते हैं ....











कभी कभी ऐसा लगता है जैसे कुछ पहाड़ शाप भी देते हैं ....













सभी पहाड़ आवाज़ नहीं देते ....कुछ ठंडी पुरवा के साथ ख़ामोशी से कानो के नज़दीक चुपके से कोई पैग़ाम छोड़ जाते हैं







......तो कुछ कोसों .....मीलों दूर से अपने पास बुलाते हैं ....






हाँ ! सभी पहाड़ एक से नहीं होते .......लेकिन फितरत के लिहाज़ से ..... क्या ये हम जैसे नहीं होते ?

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

तहलका -ऐ -तेलंगाना


मेरा ऐसा मानना है कि हम इतिहास से निकल कर पुनः उसी ओर मुड़ रहे हैं ...आपको यह भी बता दूँ कि यह वक्तव्य किस सन्दर्भ में दे रही हूँ ....सन १९५६ में भारत में १४ राज्य थे ..... यह संख्या वर्ष २००० तक दुगनी हो गई ..... आज़ादी के बाद भारत के तमाम छोटे बड़े हिस्सों को जोड़ कर भाषाई आधार पर राज्यों का गठन किया गया . समय -समय पर विभिन्न संशोधनों के द्वारा राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन यह कह कर किया गया कि इससे क्षेत्र विशेष का विकास हो सकेगा ....लेकिन ये आप भी जानते हैं कि (चाहे वे उत्तर - पूर्वी राज्य हों,हरियाणा हो या नवगठित झारखण्ड ,छत्तीसगढ़ या उत्तराखंड ) कितना और किनका विकास हुआ है?... हो सकता है आने वाले समय में दुगने से ज़्यादा ....या तिगुना और फिर उससे भी ज़्यादा हो जाए ....निश्चित ही मेरी इस बात से कई लोग सहमत न होंगे ....लेकिन आने वाले ५०-६० सालों में ऐसा हो जाए तो इसमे कोई बड़ा आश्चर्य नही होगा .....




अब तेलंगाना को ही ले लीजिये ....क्यों इतना हल्ला मचाया जा रहा है ....क्यों बनना चाहिए नया राज्य .....किस तरह का विकास चाहिए ...नया राज्य मात्र बन जाने से तेलंगाना का विकास हो जाएगा ....और सबसे अहम बात मौजूद परिस्तिथियों में क्या नए राज्य का गठन सम्भव है ....


किसी भी क्षेत्र विशेष को राज्य बनने के लिए जब जब राजनितिक पहल कि जाती है ...तो कई वर्षों तक उस पार्टी का उत्थान होता ही रहता है ....पार्टी अपने रजनीतिक हितों को साधने में कामयाब रहती है ....जनता उसे अपने हितों के संरक्षक के रूप में देखती है ...जबकि वास्तविकता यह है वर्तमान में देश या जनता के विकास कि किसी को चिंता ही नही है ....

रही बात विकास कि ...तो तेलंगाना को ही ले लीजिये ....आन्ध्र प्रदेश से इस क्षेत्र को इसलिए अलग किए जाने कि मान हो रही है क्योंकि वहां विकास उस गति से नही हो रहा है जिस गति से आन्ध्र के अन्य जिलों का हुआ है ....साथ ही एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि तेलंगाना सांस्कृतिक रूप से भी आन्ध्र से अलग है .....आप ही बताएं क्या आपको लगता है भारत जैसे देश में ये तर्क नए राज्य के निर्माण के लिए पर्याप्त हैं .....कुछ एक राज्यों को छोड़ दे तो शेष आदि राज्यों के कई क्षेत्रों का हाल तेलंगाना के जैसा ही है .....रही बात सांस्कृतिक विविधता कि ....तो हमारे देश से ज़्यादा विविधता और किस देश में होगी जहाँ हर ५० मील पर बोली ,रहन -सहन ,रीत-रिवाज़
आदि बदल जाते है .....



तेलंगाना के सन्दर्भ में विभाजन सामाजिक से ज्यादा राजनितिक प्रभुत्व का मुद्दा बन गया है । इसके अलावा यह गठन कठिन भी है कठिन इस लिए है क्योंकि किसी भी .क्षेत्र विशेष को राज्य बनाने की संविधान में एक सुनिश्चित प्रक्रिया है ...एस प्रक्रिया क अनुसार पहले राज्य विधान सभा में एक प्रस्ताव पारित किया जाना चाहिए ,जिसमें ऐसे किसी नवीन राज्य की इच्छा का समर्थन किया गया हो ...राज्य विधान सभा से भेजा प्रस्ताव संसद में रखा जाता है और संसद में बहुमत से पारित होने के बाद प्रस्ताव को राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाता है ... इस लम्बी और जटिल प्रक्रिया के बाद ही नवीन राज्य का गठन संभव है ...


तेलंगाना को राज्य बनाने के मामले में सबसे बड़ी अड़चन राज्य विधान सभा से न मिलने वाला समर्थन है ...बड़ी या छोटी किसी भी तरह की राजनितिक पार्टी का इस ओर सकारात्मक फिलहाल नज़र नहीं आ रहा ....
एक प्रकार से यह कहा जा सकता है की टी .आर .एस . द्वारा समर्थित राजनितिक स्वार्थ साधने वाले मुद्दे को अब काबू में लाना अब मुश्किल है .... राज्य बने या न बने चन्द्रशेखर राव तो मसीहा बन गए और अगर राज्य बने तो क्षेत्र के नाम पर अपना विकास तो हो ही जायेगा
यहाँ तेलंगाना की आग बुझने का नाम नहीं ले रही वहां मायावती ने अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए इस हवन कुंड में उत्तर प्रदेश के विभाजन की नई सामग्री डाल दी है ...ऐसी ही आवाज़ विदर्भ और अन्य क्षेत्रों से उठती ही रहती है ....कुल मिलकर इस राजनीती के इस 'फेस्टिव -सीज़न ' का फायदा ऐसी सभी राजनितिक पार्टियाँ उठाना चाहती हैं ... कोई पूछे इनसे कि विभाजन करते करते कहीं हम फिर से छोटे -छोटे ठिकानो और रियासतों या राजा और नवाबों युग में तो नहीं जाने वाले ...!

......... विचारणीय बात यह है कि निज स्वार्थों की पूर्ती के लिए इसी तरह की मुहीम हर राज्य की क्षेत्रीय पार्टी छेड़ दे ...तो क्या आप मेरे द्वारा कही गई बात से सहमत नहीं होंगे ...?

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

क्यों कैट पर भारी पड़े माउस ...?



हाल ही में कैट प्रतियोगी परीक्षा आयोजित की गई । पहली बार यह परीक्षा ऑनलाइन ली गई लेकिन हश्र क्या हुआ इससे सभी वाकिफ हैं । एस वाकिये से जो बात उभर के सामने आती है वो ये कि शिक्षा के उच्च स्तर पर भी हमारे संसाधन उतने ही लचर हैं जितने कि प्राथमिक या माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर के हैं । भारतीय प्रतियोगी परीक्षाएं चाहे वे प्रशासनिक सेवाएँ हो या कैट ,मैट या अन्य कोई प्रतियोगी परीक्षा एक मानक स्तर प्राप्त कर चुकी हैं । लेकिन अध्ययन और अध्यापन कि ओर दृष्टिपात करें तो हम पाएंगे की तमाम कोशिशों के बाद भी हमारा देश अध्यापन के तकनिकी क्षेत्र में काफी पिछड़ा हुआ है । यह अलग बात है की अध्यापन की नई तकनीकों की खोज जारी है किन्तु क्या इन तकनीकों को लागू करने में हम सक्षम हैं ?

नित नई परीक्षाएं जन्म ले रही हैं साथ ही नई पद्धतियाँ निर्धारित की जा रही हैं . शिक्षा भी एक कोर्पोरेट उद्योग की भाति दिन दूनी रात चौगुनी उन्नत्ति कर रहा है .ज्यादा दूर न जा कर केवल प्राथमिक स्तर पर गौर करें तो आप पायेंगे की गली मोहल्ले में सब्जी-भाजी की दूकाने उतनी नहीं होंगी जितने प्राइमरी स्कूल . अछे स्कूलों में दाखिला दिलाना चाहते हैं तो कई दिनों तक कतारों में लग कर भी सफलता मिल जाए तो अपने आप को धन्य मानिए .





अध्यापन पद्धति की चर्चा करें तो हम पायेंगे कि प्राथमिक स्तर से लेकर कॉलेज तक एक पद्धति बहुत लोकप्रिय है जिसे लेक्चर मैथड कहा जाता है और मूल्यांकन का भी यही हाल है . कहने का तात्पर्य यह है कि महज़ अच्छी बिल्डिंग , सुसज्जित कक्षा-कक्ष,प्रशिक्षित अद्यापक ,कुछ सुंदर सहायक शिक्षण सामग्री होने से स्कूल अच्छा है इसकी गारंटी हो जाती है...?

अब भी उन्ही पारंपरिक तौर -तरीकों से अध्यापन और मूल्यांकन किया जा रहा है , जिन से किसी ज़माने में हमारे माता -पिता का हुआ करता था . तात्पर्य यह है कि उन्नत संसाधन होना जितना आवश्यक है उतना ही ज़रूरी उन संसाधनों का उपयोग. प्रशिक्षित शिक्षक होने के साथ-साथ नवीन तकनीकों से अद्यापन भी ज़रूरी है .इसके साथ यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि मूल्यांकन भी नवीन पद्धतियों से हो ....पूर्व समय में पारंपरिक शिक्षा पद्धति सामानयज्ञों को तैयार करने में अव्वल थी ....लेकिन आज ज़माना विशेषज्ञता का है .





.... हो सकता है कोई बच्चा जितना अच्छा लिखने के कौशल में अंक ला सकता हो ...उतना पढने या रचनात्मक कौशल में न ला सके .....इसके विपरीत कोई विद्यार्थी ऐसा भी हो सकता है जो क्रियात्मक कौशल में उम्दा हो मगर लिखने में कमज़ोर ...अतः आवश्यता है प्रत्येक कौशल के अनुसार परीक्षा पद्धति विकसित करने की साथ ही नवीन संसाधनों के त्वरित विकास की . ताकि प्रारंभिक स्तर से ही विद्यार्थी विशेष की रूचि का पता चल सके ....१२ वीं कक्षा के बाद वह अँधेरे में तीर चलाते सिपाही जैसा न बने .... और आने वाले समय में कोई माउस किसी कैट पर भरी न पड़े

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

जन्माष्टमी और हवेली मन्दिर


पिछले दिनों जन्माष्टमी बड़े धूम - धाम से मनाई गई । यहाँ उत्तर भारत की जन्माष्टमी मुख्य रूप से राजस्थान ,गुजरात और उत्तर प्रदेश में यह दिन अलग तरह से मनाया जाता है। कई दिन पहले से कृष्ण जनम झांकियां और लीलाएं शरू हो जाती हैं। मंदिरों को हज रोज़ एक नए तरीके से सजाया जाता है ,कभी मोतियों से तो कभी फूलों से । इन दिनों मदिरों का श्रंगार दिन मैं कई बार बदला जाता है।

हर बार नए रूप में कृष्ण और उनसे सम्बंधित घटनाओं का चित्रण और सजावट की जाती है ।


यहाँ के कृष्ण मंदिरों की कई विशेषताएँ हैं ,जैसे इन मंदिरों का स्थापत्य ...कृष्ण -श्रंगार ....झांकियां इत्यादि ...मंदिरों को अगर ध्यान से देखें तो ये किसी हवेली जैसे लगते हैं । इसका कारन ये है कि पूर्वकाल में आक्रांताओ से बचने के लिए कुछ कृष्ण भगत और संत मथुरा -वृन्दावन से उनकी मूर्तियों को राजस्थान और गुजरात ले आए । उन्होंने इन हवेलियों में शरण ली ....वे यहाँ कृष्ण भजन गाते और उनसे सम्बंधित लीलाओं -घटनाओ का वाचन करते । उन्होंने इन हवेलियों को कृष्ण मन्दिर में परिवर्तित कर दिया । इन्हे आज भी हवेली ही कहते हैं।
इन हवेली मंदिरों में एक ख़ास बात ये होती है कि यहाँ भगवान् कृष्ण की मूर्ती के पीछे उनसे सम्बंधित चित्र लगाए जाते हैं । जो कपड़े पर उकेरे जाते हैं ...इन्हे पिछवई कहा जाता है । कई बार ये पिछवई कृष्ण के हर श्रंगार के साथ बदल दी जाती है।
इन मंदिरों में आठ पहर के अनुसार आठ बार श्रृगार किया जाता है। जैसे उत्थान ,मंगला ,पूजन ,शयन...आदि -आदि । इसलिए इन आठों पहर के अलग अलग भजन और पद होते हैं।
जब इन हवेलियों की स्थापना की गई थी उस समय एक नई संगीत विधा का भी जनम हुआ था ...इसे हवेली संगीत के नाम से जाना जाता है। हवेली संगीत से ही जुड़े हैं अष्ट पद कवि और उनके द्वारा रचित पद । इन अष्ट पद कवियों में वल्लभाचार्य भी एक थी जिन्होंने मधुराष्ट्रकम की रचना की थी।



अष्ट पद संगीत में केवल कृष्ण पद ही गए जाते हैं । इन पदों मैं थ ,ठ ,ला ,भा , त्र इन शब्दों का प्रयोग नही किया जाता है झूला को झूरा ... बोली को बोरी आदि । इसके पीछे कारण ये है कि भगवान् कृष्ण के कानो को तेज़ आघात न हो ...उन्हें परेशानी न हो .... । आज भी ये हवेली मंदिर वैसे ही हैं ...यकीन न हो तो अगली जन्माष्टमी पर यहाँ आकर ख़ुद ही देख लें ....


मंगलवार, 11 अगस्त 2009

ये जो देस है मेरा

१५ अगस्त आने वाला है .....लोगों के लिए छुट्टी का दिन है ,कुछ घूमे जाने वाले हैं तो कुछ पूरा दिन घर में सो कर बिता देंगे .....कुछ लोगों ने प्लान बनाया है कि नई फ़िल्म इसी दिन देखेंगे....मेरे एक परिचित से मैंने एस बारे मैं बात की ....जवाब क्या मिला ...जानना चाहेंगे ?....

--- ...भाई फिर छुट्टी कहाँ मिलेगी ....
--- ....लेकिन अगर आप ये सब काम करोगे तो १५ अगस्त कौन मनायेगा ?????
---...अरे यार ये सब अब एक दिखावा है ......ये ज़िम्मेदारी तो प्रशासन वालों की है वो मना तो रहे हैं..
--- ... और फिर स्कूल वाले हैं ना ....वो मना लेंगे ....और वैसे भी सेक्योरिटी के हिसाब से भी इस दिन घर में ही रहो तो अच्छा है....
----.....हम तो आपको भी कह रहे हैं घर में मस्त रहिये ....

ओफ्फ्फ ....आख़िर हो क्या गया है लोगों को ?क्यों हो गए हैं सब ऐसे ?.....

....एक बहुत ही सीधी सी बात है ...देश आजाद हुआ है उसकी खुश मनानी है....बस । .... ही पैसे खर्च करने है ... दान देना है फिर ऐसी उदासीनता क्यों ?....
कभी कभी तो लगता है की वास्तव में वो दौर ही ऐसा रहा होगा की लोग देश के लिए नींद- चैन ,घर- बार छोड़ कर मर- मिटे इस धरती के लिए ....अगर उन्होंने उस समय आराम करने का सोचा होता ....?क्या वो अपने घरवालों के साथ समय नही बिताना चाहते होंगे ....?जिनकी वजह से हम आज़ाद हैं, उनको याद करने के लिए कुछ घंटे भी नही हैं हमारे पास .....

यही हाल स्कूल के भी हैं .....कुछ स्कूल इस दिन छुट्टी रखते हैं ताकि उस दिन लड्डू बांटने की आफत से बचना पड़े ....कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम ना करवाना पड़े ..... आफत टले
जहाँ १५ अगस्त मानते हैं वहाँ उस दिन बच्चे स्कूल कम आते हैं ....अगले दिन जब बच्चों से पूछा जाता है की बेटा कल आप क्यों नही आए ....तो फिर वही रटा-पिटा जवाब -मैम हमारी मम्मी ने कहा कल स्कूल नही भेजेंगी .... ।
यानि जैसे हम ख़ुद हैं वैसे ही हम अपने बछो को भी बनाते जा रहे हैं .......
आख़िर ये उदासीनता क्यों?...
क्या देश के लिया हमारा इतना भी कर्तव्य नही ...अगर नही ...तो फिर क्यों हम आए दिन रोते हैं अपनी समस्याओं को लेकर ....सरकारी तंत्र की बुराइयों को लेकर ..... भ्रष्टाचार , लालफीताशाही ,आरक्षण, पक्षपात और महंगाई को लेकर क्यों कोसते हैं सरकार को ....यदि देश के प्रति देशवासियों का कोई कर्तव्य नही, तो देश भी किसी का नही ....समाज की दिशा से किसी को मतलब नही .... वोट डालने ...या १५ अगस्त और २६ जनवरी जैसे त्योहारों से किसी का वास्ता नही ....अपनी ओर से कोई योगदान देना तो दूर .....दूसरों को भी भ्रमित करने में माहिर हैं लोग ....... ।
आज भी मुझे याद है मेरी एक अध्यापिका १५ अगस्त और २६ जनवरी के दिन नई साड़ी पहनती थी ....जिस रंग की साड़ी उसी रंग की चूडियाँ ... इस दिन सज-संवर के आना उन्हें खुशी देता था ....उन्ही से मैंने ये सीखा कि ये दिन आत्मिक खुशी का दिन है और इसी मानना हमारा कर्तव्य है .....
ये मेरे निजी विचार हैं क्या आप भी इनसे साम्यता रखते हैं .....क्या कहा .....हाँ .....



.......यानी इस बार आप १५ अगस्त मानाने जा रहे हैं ....हैं ना ....








रविवार, 9 अगस्त 2009

भावनाए नही बदलती ..

हमारे माता -पिता दोनों में से कौन हमे ज्यादा प्यार करता है ...ये पता लगाना नामुमकिन है .....प्यार की सीमा बाँधने क लिए अगर माँ को धरती मान लिया जाय तो पिता भी आकाश से कम नही है ....हम धरती को छू सकते हैं उस पर खेल सकते हैं लेकिन आसमान को छू पाना ...उसकी गहराई का पता लगना बहुत मुश्किल है .....


जब हम बच्चे होते हैं तो हमारे लिए 'पापा '...ये शब्द किसी सुपर मैन से कम नही होता .....जो काम हम नही कर सकते वो 'पापा ' कर सकते हैं ....एक फरमाइश करने भर की देर है ....और 'पापा ' उस चीज़ को ले आते हैं ....हमे चोट लग जाए तो गोद में उठाकर दुलारने वाले'पापा'....और जब हमे लगे के हम दुश्मनों से घिर चुके हैं तो उन्हें डराने धमकाने के लिए aएक ही शब्द जुबां पे आता है ............'पापा'


जी ........!कुछ इसी तरह से चल रहा था उस दिन का प्रोग्राम .....जिस दिन फादर्स डे था .... सब कुछ वैसा ही था ...... स्टूडियो ,माइक,हेडफ़ोन, कंसोल और कंप्यूटर ...सब कुछ....पर पता नही क्यों ..... उस दिन मैंने चाहा कि यहाँ आज मेरे साथ पापा होने ही चाहिए ........ ऐसा लग रहा था कि वो अगर स्टूडियो में साथ होते तो ......अचानक गाना बंद हुआ और मुझे एहसास हुआ कि अगला लिंक बोलने का समय गया है। खैर वो प्रोग्राम तो वहीं ख़तम हो गया पर इस के बारे सोचती रही ..... की कैसे समय बीत जाता है पता ही नही चलता जब हम बच्चे होते हैं तो 'पापा'बहुत बड़े लगते हैं .....फिर जब हम और बड़े हो जाते हैं तो 'पापा ' भी बड़े हो जाते है .....लेकिन एक समय ऐसा भी आता है जब हम तो बड़े होते जाते हैं लेकिन पापा ..... बच्चे बन जाते हैं वो हमे हमेशा हौसला देते हैं प्रेरित करते हैं .... पर आगे बढ़ते हुए ....वो तरक्की के साथ ये भी चाहते हैं की हम हमेशा उनके साथ भी रहें ....
इसी को बयान करता हुआ एक इंग्लिश गाना भी है -






Just wanna say ......i love u Papa

बुधवार, 22 जुलाई 2009


www.blogvani.com
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ये कैसी अनभिज्ञता ..?

इतिहास में झांकें तो एक चीज़ जो उभर कर सामने आती है कि सत्ता का उपभोग उन्ही ने किया है जिनके पास शक्ति थी ...... । ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि उन्होंने सत्ता को बचाए रखने के लिए भरसक प्रयास किए । उन्होंने आम जनता को ज्ञान से दूर रखा ताकि वे अधिकारों जैसी किसी चीज़ की मांग ही ना करें । यही सिलसिला आगे तक चलता गया और अब भी जारी है ।

कहने को तो हम २१ वीं सदी में जी रहे हैं .... सूचना प्रोद्योगिकी का दौर है ... दुनिया 'विश्व ग्राम ' में तब्दील हो चुकी है .... भारत नए आयामों को छू रहा है ... कितना सच.... और कितना झूठ..... ये हम सब जानते हैं । इस विषय का अध्ययन करते हुए मुझे कई बार बड़ा अचम्भा हुआ जब मैंने ये देखा कि इस युग में भी कई लोग ऐसे हैं जो डिग्री - धारी तो है , अख़बार भी पढ़ते हैं, टी. वी भी रोजाना देखते हैं फिर भी उन्हें अधिकारों के बारे में कोई जानकारी नही है । जगह -जगह अभियान , सेमीनार ,लेक्चर्स होते हैं जिससे लोगों में जागरूकता लाई जा सके । लेकिन इसमे भी जनरुचि का अभाव है ..... हास्यास्पद बात ये है कि ऐसी जगह जाने की बजाय लोग सत्संग,फ़िल्म या खरीददारी करने जाना ज्यादा पसंद करते हैं । अक्सर जब मैं अपने मिलनेवाले लोगों को परेशान देखती हूँ .... और पूछती हूँ कि क्यों परेशान हैं ?.... तो मालूम पड़ता है कि किसी सरकारी काम में अड़चन परेशानी की वजह है । इसके जवाब में मैं उन्हें आर .टी.आई.लगाने की राय देती हूँ ,तो वे कहते हैं .....
क्या .... आर .टी.आई.? ये क्या है?...... हमें कोर्ट - कचहरी नही जाना ? या .... अरे हम तो आम लोग हैं .....हम क्या जाने ये कानून -वानून क्या है?.... कहने का मतलब ये है कि स्थिति आज भी जस कि तस है ।ऐसा लगता जैसे सबको इस तरह जीने की आदत पड़ गई है ।

दूसरी तरफ़ सरकारी महकमों में आर.टी.आई.एक हौवा है .... निचले तबके के कर्मचारी इस शब्द का उपयोग तो करते हैं ....पर ये क्या है .....इस बारे में उन्हें नही पता । आला -अधिकारी सूचना के अधिकार के तहत लगे प्रार्थना -पत्रों से परेशान हैं । कुछ दिन पहले इस क़ानून के दुरोपयोग कि बात चल रही थी... इस पर किसी ने कहा कि इस कानून का दुरोपयोग नही हो सकता ..... । लेकिन जनाब ऐसा नही है .... आपको ये जानकर हैरानी होगी कि आकाशवाणी जयपुर में लगभग २७० प्रार्थना -पत्र कार्यालय में कार्यरत लोगों ने ये जानने के लिए लगाये कि अमुख गाना किस दिन बजा .....पिछले २ ,६ या ८ महीनों में कितनी बार बजा ...... या पिछले साल अमुख फ़िल्म के गाने कितनी बार बजे...... । निश्चित ही ये जानकारी किसी तरह की ज्ञान वृद्धि नही करने वाली । हाँ , ये बात और है कि इस तरह की सूचनाएँ एकत्रित करते -करते आकाशवाणी के प्रशासक और अधिकारी संगठन के मुख्य उद्देश्य यानि प्रसारण को छोड़ लॉग बुक ही उलटते -पलटते रह जाए ।
सूचना का अधिकार एक नया कानून है ..... कुछ लोंग इस से अनभिज्ञ हैं .... कुछ अनभिज्ञ बने रहना चाहते हैं ....और जो इस से भिज्ञ हैं वे इसका जमकर उपयोग कर रहे हैं .......या ....... इससे कुछ अधिक कहें तो .............दुरुपयोग....................!

बुधवार, 1 जुलाई 2009

जानने के हक पर पाबन्दी क्यों ...?

लोक्तात्रत्मक शासन व्यवस्था जिसे प्लेटो ने विधिसम्मत राज्य का निकृष्टतम किंतु विधिविहीन राज्य का
सर्वोत्कृष्ट रूप कहा तो अरस्तू ने इसी भीड़तंत्र को प्रजातंत्र कहा । आधुनिक काल में अमेरिकी राष्ट्रपति लिंकन ने लोकतंत्र की एक नई व्याख्या की - जनता की,जनता के द्वारा ,जनता के लिए । कुछ विद्वानों ने यह भी कहा कि
जब बहुसंख्यको द्वारा एक व्यवस्थित संहिता के आधार पर शासन किया जाता हैतो वह संवैधानिक तंत्र कहलाता है ।
लोकतंत्र का सबसे पेला और प्रमुख गुण यह है कि यहाँ शासन जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से होता है। विश्व के अलग -अलग राष्ट्रों ने इस टोप (लोकतंत्र ) को अपने -अपने सर के हिसाब से पहना और व्यवस्थित किया है। लेकिन यह भी कहना पड़ेगा कि जिन देशों के नागरिकों ने शासन कि वास्तविक लगाम अपने हाथों में रखी है वहीं लोकतंत्र का रथ गति से दौड़ रहा है। बहुत से राष्ट्रों ने समय -समय पर अपने संविधानों में छोटे-बड़े संशोधनों द्वारा लोगों कि आस्थाओं को सुदृढ़ करने के का प्रयास किया है अतःएव अपने शासन में पारदर्शिता लाने के लिए जनता को जानने का हक भी दिया । तभी उन राष्ट्रों में सफल शासन तंत्र पुष्पित -पल्लवित हुआ और अनवरत प्रयासों से अब भी विकसित होता जा रहा है।
विश्व में सर्वप्रथम सूचना का अधिकार स्वीडन के नागरिकों को प्राप्त हुआ (१७६६)। इसके बाद अन्य
देशों ने अपने नागरिकों को यह अधिकार दिया । भारत .... विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र... सन १९४७ में आजाद हुआ किंतु हमारे देश में तकरीबन आज़ादी की आधी सदी के बाद यह अधिकार मिला । सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम वर्ष २००२ में पारित हुआ .... अधिक प्रभावी न होने के कारण कई संशोधनों के बाद एक नए रूप में वर्ष २००५ में सूचना के अधिकार अधिनियम के नाम से लागू हुआ । विचारणीय विषय यह है कि भारत जैसे देश में सूचनाओं के सार्वजनीकरण पर रोक क्यों रही ? इतने वर्षों तक सरकारी दस्तावेजों पर गोपनीय और अति - गोपनीय जैसे शब्द क्यों लिखे गए ? क्यों आम -आदमी लोकसेवकों से भयभीत रही ?
क्या वास्तव में हमारे संविधान निर्माता ऐसा भारत चाहते थे ....जहाँ जनता नेताओं और प्रशासकों के अत्याचारों और भ्रष्ट आचरण से त्रस्त रहे या उनके सपनों का भारत कुछ अलग था । यदि ऐसा नही था तो अंग्रेजों के ज़माने में बनाये गए अधिकाँश अधिनियमों को ज्यों का त्यों भारतीय संविधान में क्यों शामिल किया गया ? सरकारी गोपनीयता अधिनियम १९२३ को किस कारण जारी रखा गया ... और समय के साथ इसे और कठोर क्यों बनाया गया ?लोकतंत्र में जानने के अधिकार पर वांछनीय न होते हुए भी रोक क्यों रही....

शनिवार, 20 जून 2009

अधिकारों को जानने का हक

बचपन ....कितनी अच्छी है वो दुनिया ..जब हम दुनियादारी से दूर होते हैं ....मगर हर एक दिन दुनियादारी के प्रपंचों के करीब होते जाते हैं....हम सब कुछ सीखते जाते हैं। वो जो हम घर में सीखते हैं ... स्कूल-कॉलेज , आस-पड़ोस ,दोस्तों ,फिल्मों या नेट सभी से तो हम अपनी जानकारी में उत्तेरोतर वृद्धि करते रहते हैं। अच्छाई-बुराई,मस्ती-मज़ा ,दुःख-तकलीफ ,रोज़मर्रा के संघर्षों से दो-चार होना ,घर- दफ्तर ,अपने-परायों के बीच निजी ज़रूरतों और हकों के लिए ,कभी मान -मनुहार करते हैं ..तो कभी हकों के लिए लड़ते हैं ...संघर्ष करते हैं .
क्या वास्तव में हम अपने हकों को जानते हैं? क्या हैं हमारे अधिकार? क्या हमें अपने अधिकारों की जानकारी है? क्या हमें पता है की हमारे पास अपने अधिकारों को जानने का अधिकार है? ...... हमारे पास सूचना का अधिकार है ....
सूचना के अधिकार की संकल्पना कहाँ से शुरू हुई....इस बात का जवाब काल क्रम में अंकित है , लेकिन सोचने का विषय यह है कि 'सूचना' की उत्पत्ति कहाँ से हुई होगी ? मानव आदि काल से ही खोजी रहा है..तभी नित नई खोज से उसका विकास भी हुआ है। मन -मस्तिष्क में क्या? क्यों ? कैसे?किसका?कहाँ?और न जाने कितने सवालों ने जनम लिया होगा ,जिसके बाद जानने की इच्छा जागृत हुई होगी । ज्ञान के प्रकाश में अनेक अन्वेषण और अनुसंधान होते चले गए ..साथ ही सूचनाओं की भी उत्पत्ति और विस्तार होता चला गया ।
ज्ञान और सूचनाओं की अभिवृद्धि के साथ मनुष्य विकास के पथ पर आगे बढ़ता गया ( सूचना क्या है? यह एक विस्तृत विषय है, जिसकी चर्चा फिर कभी करना चाहूंगी । ) आदि-मानव अब प्रजा और उसके बाद नागरिक बन गया वहीं झुंड या कबीला पहले जनपद और फिर राष्ट्र में बदल गया । विकास की एक लम्बी यात्रा के बाद सभ्य समाज की अवधारणा उपजी ,जहाँ व्यक्ति को नागरिक तथा क्षेत्र विशेष को देश कहा गया ।
इसके बाद बात आती है अधिकारों की ....अधिकारों की शुरुआत कहाँ से हुई । मेरे विचार से इसका सीधा सा जवाब ये हो सकता है की अज्ञात काल में किसी प्रभुत्वसंपन्न दमनकारी व्यक्ति या वर्ग ने अल्पज्ञानियों का शोषण किया होगा और उस दमन के विरुद्ध जब सबसे पहला विद्रोह हुआ होगा तभी से अधिकारों का जनम हुआ होगा ।
निश्चित ही प्राणी होने के नाते हमारे बहुत से अधिकार हैं ,जो हमें प्रकृति ने दिए हैं जैसे साँस
लेने का अधिकार या भूख लगने पर पोषण प्राप्त करने का अधिकार , किंतु इन अधिकारों का महत्व आदि काल तक सीमित था ऐसा नही है ये अधिकार आज भी मूलभूत अधिकारों में शामिल हैं। वर्तमान की आकांक्षाएं और मूल्यों के अनुसार अधिकार असंख्य हैं । चूँकि आकांक्षाओं maiन दिन -प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही है और मूल्य
समय के साथ परिवेर्तित होते जा रहे हैं ।
नैसर्गिक स्वतंत्रता के साथ -साथ नागरिकों को अब व्यक्तिगत,राजनैतिक ,आर्थिक , सांस्कृतिक विधिक ,धार्मिक ,नैतिक ,और संवैधानिक स्वतंत्रता चाहिए । इन सब स्वतंत्रताओं का उपयोग वह व्यतिगत , राजनैतिक धार्मिक,आर्थिक ,सांस्कृतिक और विधिक अधिकारों के तहत करना चाहता है , लेकिन सभी अधिकारों का उपयोग करने क लिए इनके ज्ञान की आवश्यकता है ...ज़रूरत है जानकारी की .....

................. ज़रूरत है सूचना के अधिकार को जानने की .....