बुधवार, 22 जुलाई 2009


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ये कैसी अनभिज्ञता ..?

इतिहास में झांकें तो एक चीज़ जो उभर कर सामने आती है कि सत्ता का उपभोग उन्ही ने किया है जिनके पास शक्ति थी ...... । ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि उन्होंने सत्ता को बचाए रखने के लिए भरसक प्रयास किए । उन्होंने आम जनता को ज्ञान से दूर रखा ताकि वे अधिकारों जैसी किसी चीज़ की मांग ही ना करें । यही सिलसिला आगे तक चलता गया और अब भी जारी है ।

कहने को तो हम २१ वीं सदी में जी रहे हैं .... सूचना प्रोद्योगिकी का दौर है ... दुनिया 'विश्व ग्राम ' में तब्दील हो चुकी है .... भारत नए आयामों को छू रहा है ... कितना सच.... और कितना झूठ..... ये हम सब जानते हैं । इस विषय का अध्ययन करते हुए मुझे कई बार बड़ा अचम्भा हुआ जब मैंने ये देखा कि इस युग में भी कई लोग ऐसे हैं जो डिग्री - धारी तो है , अख़बार भी पढ़ते हैं, टी. वी भी रोजाना देखते हैं फिर भी उन्हें अधिकारों के बारे में कोई जानकारी नही है । जगह -जगह अभियान , सेमीनार ,लेक्चर्स होते हैं जिससे लोगों में जागरूकता लाई जा सके । लेकिन इसमे भी जनरुचि का अभाव है ..... हास्यास्पद बात ये है कि ऐसी जगह जाने की बजाय लोग सत्संग,फ़िल्म या खरीददारी करने जाना ज्यादा पसंद करते हैं । अक्सर जब मैं अपने मिलनेवाले लोगों को परेशान देखती हूँ .... और पूछती हूँ कि क्यों परेशान हैं ?.... तो मालूम पड़ता है कि किसी सरकारी काम में अड़चन परेशानी की वजह है । इसके जवाब में मैं उन्हें आर .टी.आई.लगाने की राय देती हूँ ,तो वे कहते हैं .....
क्या .... आर .टी.आई.? ये क्या है?...... हमें कोर्ट - कचहरी नही जाना ? या .... अरे हम तो आम लोग हैं .....हम क्या जाने ये कानून -वानून क्या है?.... कहने का मतलब ये है कि स्थिति आज भी जस कि तस है ।ऐसा लगता जैसे सबको इस तरह जीने की आदत पड़ गई है ।

दूसरी तरफ़ सरकारी महकमों में आर.टी.आई.एक हौवा है .... निचले तबके के कर्मचारी इस शब्द का उपयोग तो करते हैं ....पर ये क्या है .....इस बारे में उन्हें नही पता । आला -अधिकारी सूचना के अधिकार के तहत लगे प्रार्थना -पत्रों से परेशान हैं । कुछ दिन पहले इस क़ानून के दुरोपयोग कि बात चल रही थी... इस पर किसी ने कहा कि इस कानून का दुरोपयोग नही हो सकता ..... । लेकिन जनाब ऐसा नही है .... आपको ये जानकर हैरानी होगी कि आकाशवाणी जयपुर में लगभग २७० प्रार्थना -पत्र कार्यालय में कार्यरत लोगों ने ये जानने के लिए लगाये कि अमुख गाना किस दिन बजा .....पिछले २ ,६ या ८ महीनों में कितनी बार बजा ...... या पिछले साल अमुख फ़िल्म के गाने कितनी बार बजे...... । निश्चित ही ये जानकारी किसी तरह की ज्ञान वृद्धि नही करने वाली । हाँ , ये बात और है कि इस तरह की सूचनाएँ एकत्रित करते -करते आकाशवाणी के प्रशासक और अधिकारी संगठन के मुख्य उद्देश्य यानि प्रसारण को छोड़ लॉग बुक ही उलटते -पलटते रह जाए ।
सूचना का अधिकार एक नया कानून है ..... कुछ लोंग इस से अनभिज्ञ हैं .... कुछ अनभिज्ञ बने रहना चाहते हैं ....और जो इस से भिज्ञ हैं वे इसका जमकर उपयोग कर रहे हैं .......या ....... इससे कुछ अधिक कहें तो .............दुरुपयोग....................!

बुधवार, 1 जुलाई 2009

जानने के हक पर पाबन्दी क्यों ...?

लोक्तात्रत्मक शासन व्यवस्था जिसे प्लेटो ने विधिसम्मत राज्य का निकृष्टतम किंतु विधिविहीन राज्य का
सर्वोत्कृष्ट रूप कहा तो अरस्तू ने इसी भीड़तंत्र को प्रजातंत्र कहा । आधुनिक काल में अमेरिकी राष्ट्रपति लिंकन ने लोकतंत्र की एक नई व्याख्या की - जनता की,जनता के द्वारा ,जनता के लिए । कुछ विद्वानों ने यह भी कहा कि
जब बहुसंख्यको द्वारा एक व्यवस्थित संहिता के आधार पर शासन किया जाता हैतो वह संवैधानिक तंत्र कहलाता है ।
लोकतंत्र का सबसे पेला और प्रमुख गुण यह है कि यहाँ शासन जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से होता है। विश्व के अलग -अलग राष्ट्रों ने इस टोप (लोकतंत्र ) को अपने -अपने सर के हिसाब से पहना और व्यवस्थित किया है। लेकिन यह भी कहना पड़ेगा कि जिन देशों के नागरिकों ने शासन कि वास्तविक लगाम अपने हाथों में रखी है वहीं लोकतंत्र का रथ गति से दौड़ रहा है। बहुत से राष्ट्रों ने समय -समय पर अपने संविधानों में छोटे-बड़े संशोधनों द्वारा लोगों कि आस्थाओं को सुदृढ़ करने के का प्रयास किया है अतःएव अपने शासन में पारदर्शिता लाने के लिए जनता को जानने का हक भी दिया । तभी उन राष्ट्रों में सफल शासन तंत्र पुष्पित -पल्लवित हुआ और अनवरत प्रयासों से अब भी विकसित होता जा रहा है।
विश्व में सर्वप्रथम सूचना का अधिकार स्वीडन के नागरिकों को प्राप्त हुआ (१७६६)। इसके बाद अन्य
देशों ने अपने नागरिकों को यह अधिकार दिया । भारत .... विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र... सन १९४७ में आजाद हुआ किंतु हमारे देश में तकरीबन आज़ादी की आधी सदी के बाद यह अधिकार मिला । सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम वर्ष २००२ में पारित हुआ .... अधिक प्रभावी न होने के कारण कई संशोधनों के बाद एक नए रूप में वर्ष २००५ में सूचना के अधिकार अधिनियम के नाम से लागू हुआ । विचारणीय विषय यह है कि भारत जैसे देश में सूचनाओं के सार्वजनीकरण पर रोक क्यों रही ? इतने वर्षों तक सरकारी दस्तावेजों पर गोपनीय और अति - गोपनीय जैसे शब्द क्यों लिखे गए ? क्यों आम -आदमी लोकसेवकों से भयभीत रही ?
क्या वास्तव में हमारे संविधान निर्माता ऐसा भारत चाहते थे ....जहाँ जनता नेताओं और प्रशासकों के अत्याचारों और भ्रष्ट आचरण से त्रस्त रहे या उनके सपनों का भारत कुछ अलग था । यदि ऐसा नही था तो अंग्रेजों के ज़माने में बनाये गए अधिकाँश अधिनियमों को ज्यों का त्यों भारतीय संविधान में क्यों शामिल किया गया ? सरकारी गोपनीयता अधिनियम १९२३ को किस कारण जारी रखा गया ... और समय के साथ इसे और कठोर क्यों बनाया गया ?लोकतंत्र में जानने के अधिकार पर वांछनीय न होते हुए भी रोक क्यों रही....