शनिवार, 13 जुलाई 2013

वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी...




बहुत दिनों से उमस बढ़ गई है...मौसम में और जीवन में...इंतजार कर रही हूँ...बारिश का ...जो भीगा दे
सबसडको-गलियों को ....धो डाले हर तरह की धूल को....तर कर दे दुनिया की प्यास को ..दे संतोष उस 
अतृप्त जीवन शैली को जो हमसे कहीं छूट गई है... आगे बढ़ने की चाहत में....
 
 


बाजारवाद कितना हावी हो गया है कि माँ को अगर बच्चों कि दुनिया होना है मिक्स तो उसे रीमिक्स होना पड़ेगा और चन्दा है तू मेरा सूरज है तू के रैप पर रॉक एन रोल करना पड़ेगा...बस यहीं से शुरुआत समझ लो...भटकाव की...सुबह के नाश्ते में माँ के हाथों से बने पराठे अब नहीं भाते...हाँ आर्मी की तैयारी करते हुए कॉर्न-फ्लेक्स खाना ज़रूर अच्छा लगता है...पढने से पहले टैंग पीना ज़रूरी होता है...बिना बोर्नविटा-कॉम्प्लान पिए सारी दुनिया नाटी या बौनी रह जाएगी...
 
इसे छोडिये बिना गोरेपन की क्रीम लगाये लड़की ब्यूटी कांटेस्ट नहीं जीत सकती...ओय्ली स्किन की वजह से स्टेज पर गाना नहीं गया जासकता...अब तो पहलवानों के लिए भी मर्दों वाली क्रीम लगाना ज़रूरी है...
 
हेमा  रेखा जया और सुषमा में निरमा से धुले कपडे पहनने के बाद असीम शक्ति आ जाती है.. वहीं महंगी वाली सफेदी के लिए दो पडोसने एक -दूसरे को नीचा दिखाने से नहीं चूकती..... दूसरी तरफ बिना टाइड लिए पति मिसेज़ के मुलायम हाथ नहीं देख सकता
 
ताज़े पके खाने की खुशबू रेडी टू ईट ने ले ली... घर पहुचने से पहले दफ्तर में औरत शाम को टेस्टी -टेस्टी खाना बनाने के लिए सब्जी के मसालों में उलझी पड़ी है...प्यास लगने पर लोग कुछ तूफानी करने की सोचते हैं...ऐसा ही कुछ करते हुए डर के आगे मौत नहीं जीत दिखती है....और अलाइव फील करने के लिए पहाड़ों से छलांग लगाने से भी परहेज़ नहीं है.....आखिर क्या है ये सब .......लगता है न बेहद वाहियात...
 
समय बढ़ा, महंगाई बढ़ी....पैसा बढ़ा....दूरियां बढ़ी...पहले हर चीज़ की एक सीमा -एक हद होती थी आज सब कुछ बेहद- बेलगाम है...कहने का मतलब ये नहीं है कि जो इंसान सुख सुविधा पसंद है वो ख़राब है...लेकिन ये भी तो सही नहीं है न के पडोसी की बड़ी कार की जलन में अपनी कार को "बेच दे"
 
टी. वी. चैनलों की भरमार ने आपस में बात करने का समय खा लिया है...और विचार- मंथन का समय एफ.एम. चैनल के मुर्गों- बकरों या चुलबुली कुड़ियों ने.... व्यावहारिक दुनिया बदल गई है....आने वाले समय में शायद इस जैसी चीज़ का कोई अस्तित्व ही न हो....सब कुछ वर्चुअल हो जायेगा ...




कभी -कभी उन भावनाओं के लिए असीम सम्मान आ जाता है जब याद आता है की दादी-नानी बनने की ख़ुशी में घर की बड़ी औरतें अपनी बहु- बेटियों को सीख देती थी...आज डाक्टर से पूछे बिना नई माँ को गोंद-गिरी के लड्डू नहीं खिलाये जा सकते ...शहर से गाँव जाता बेटा सब के लिए कुछ न कुछ खरीद के ले जाता था उसका आना परिवार वालों के लिए किसी त्यौहार से कम नहीं होता था....आज वो ख़ुशी बहुत कम दिखती है
 
होली-दिवाली पर घर के बने पकवानों की खुशबू नहीं आती....याद है बचपन में कैसे मन ललचाता था सोचते थे कब पूजा होगी...कब मिलेगी गुजिया-मट्ठी खाने को...माँ की हिदायत जो होती थी...और छोटे भाई-बहनों का मिठाई चुरा के लाना...और घर के किसी कोने में छुप छुप खाना  
 
भीगने का इंतजार पेड़-पौधे,जीव और मानुष सभी करते थे...पहली बरसात में नहाना प्रकृति का उत्सव होता था जिसमे सब शामिल होते थे...पंछी परों को उठा कर हर तरफ से भीगने की कोशिश करते थे...तो मोर नाचने लगते थे...गाय, भैस, घोड़े,ऊँट....सब शांत खड़े रह कर भीगने का मज़ा लेते थे... और हम अपनी कागज़ की कश्तियों को बारिश के पानी में चला कर ये सोचते थे के न जाने कौनसे नए टापू को हम खोज डालेगे....
 
कितना बेरहम है ये समय इसने सब से सब कुछ छीन लिया परिवार से बच्चे...बच्चों से परिवार....आत्मा से जुड़े रिश्ते...और रिश्तों की आत्मा ....
 
जो आनंद अल्हड़पन का, भोलेपन का,जीवन में छुपे लय-ताल और कला का पहले के लोगों ने लिया... वो हम नहीं ले पाए...इसी तरह आने वाली पीढ़ी के साथ होगा...बारिश तो होगी पर उसमे चलने के लिए कंप्यूटर एक्सपर्ट e -कश्ती ज़रूर इजाद कर देंगे 
 

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