सात करोड़ में से एक होने पर आप सभी को बधाई! जानना चाहेंगे क्यूँ ?
आज विश्व जनसंख्या दिवस जो है . बचपन से ही हम ये पढ़ते आ रहे हैं कि इसी तरह तादाद बढती रही तो जनसंख्या विस्फोट हो सकता है . शायद हो भी रहा है ...कहीं और की बात क्यूँ करें हमारा देश तो खुद इस मामले में दूसरे नंबर पर है . अच्छे कामों में तो शायद क्या ही कभी आगे रहेगा . भ्रष्टाचार , गरीबी , घोटाले ,अपराध और जनसंख्या बढ़ने में बस अव्वल ही समझो ....समय समय पर हमारी सरकारें बहुत सी योजनायें ले कर आई हैं जो जनता के कल्याण के लिए बनाई गई ...छोटा परिवार ...खुशियों का आधार ...जननी सुरक्षा योजना ,स्कूल चलें हम या राष्ट्रीय साक्षरता मिशन , मिड डे मील या लाडली सुरक्षा ....कागज़ी तौर पर ये सभी सराहनीय हैं लेकिन हकीकत के धरातल से अब भी काफी दूर हैं . या यूँ कह लें की सभी योजनायें घोटालों की भेट चढ़ गई हैं ...लेकिन भारत निर्माण तो हो ही रहा हैं .....यहाँ नहीं कहीं और ही सही ....
खैर हमारा विषय था जनसख्या विस्फोट .... किसी भी महिला के लिए माँ बनाना हमेशा एक उपलब्धि ही हो ...ज़रूरी नहीं है ...कहानी -किस्सों और कविताओं को छोड़ दें तो आज की तारिख में माँ बनाना .... एक वर्ग के लिए ख़ुशी ....दूसरे के लिए ज़िम्मेदारी .... और एक बड़े वर्ग के लिए बिना सोच-समझ के साथ बढाया हुआ कुनबा भर है ....ये समस्या खास कर भारत और तीसरी दुनिया के उन देशों की है जो उन्नीसवीं -बीसवीं सदी में आज़ाद हुए हैं .....हास्यास्पद है लेकिन छोटी सी दिखने वाली इस समस्या ने पूरे विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है .
इस बार सयुक्त राष्ट्र संघ ने जिस मुद्दे को साल 2013 की थीम बनाया है वो है ' किशोरावस्था में मातृत्व ' ....या यूँ कह ले कि हकीकत में ये उन देशीं की समस्या है जहां वास्तव में आबादी बहुत ज्यादा है . जब एक परिवार में ज्यादा बच्चे होते हैं तो कुपोषण की सम्भावना सबसे ज्यादा होती है ....परिवार की आमदनी सही भी हो तो भी पालन -पोषण की तंगी लगी रहती है ...लड़कों को तो पढाई- लिखाई नसीब हो भी जाये पर लड़कियों को वो भी नहीं होती .....दिल्ली की झुग्गी और बस्तियों में चलने वाले स्कूलों का आलम ये है की ....बच्चे आते ही नहीं ....कहीं -कहीं अध्यापकों को स्कूल में बच्चों को समझा बुझा के लाना पड़ता है ...कि तुम्हे दिन में खाना मिलेगा ...लेकिन ग़रीबी ने इन बच्चों से मासूमियत छीन कर इन्हें मक्कार बना दिया है ....वे स्कूल जाते तो हैं लेकिन खाना (मिड डे मील ) मिलने से ठीक पहले और उसके बाद पिछले दरवाज़ों से अपने बोरे उठा कर कचरा बीनने चले जाते हैं .
कम उम्र में मातृत्व का दूसरा कारण लड़का लड़की में भेद -भाव का है ....और ऐसा सिर्फ हमारे यहाँ होता ये सच नहीं है ये तो दुनिया के कई देशों की कहानी है छोटी उम्र में शादी ...दो नासमझ लोगों को पति -पत्नी और आने वाले समय में लाचार माँ -बाप बना देती है ....शायद पढने -सुनने में अच्छा न लगे लेकिन यही वर्ग है जो बिना किसी अपराध -बोध के अनगिनत बच्चे पैदा करता है ....हाँ ये बात सच है अगर माता -पिता बच्चे को अच्छी परवरिश नहीं दे सकते तो उन्हें परिवार बढाने का भी कोई हक़ नहीं है ....
ज़रुरत सिर्फ सोच को बदलने की है ....लड़का -लड़की में भेद अब गुज़रे ज़माने की बात हो चुकी है ....केवल पालने की ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ने के लिए बेटी की शादी जल्दी करना सरासर ग़लत है ....एक अविकसित लड़की , बीमार और कमज़ोर माँ साबित होती है ....हाँ ये बात और है के हाथ -पाँव तो चलते हैं पर शरीर खोखला हो जाता है ....
देर से शादी होना ...शायद इस दिशा में एक अहम् कदम साबित हो और उस से भी पहले लड़की को देवी या पूजिता की छवि से बाहर निकाल कर इंसान की श्रेणी में शामिल करना .... उसे भी लड़कों के बराबर प्यार, सम्मान ,अधिकार और आत्मनिर्भर बनाना ....
क्यूँ हो लड़कियों या महिलाओं से भेद-भाव ?क्या लड़कों और पुरुषों की तरह उनके खून का रंग लाल नहीं ....क्या ये सोच ज़रूरी नहीं की जिस तरह किसी आदमी को अपनी माँ के दर्द का एहसास होता है ...वैसा ही दर्द अपनी पत्नी या बेटी के लिए क्यूँ नहीं ?
आज विश्व जनसंख्या दिवस पर हो सके तो केवल इतना करें ...अपने आस -पास जैसे घर की मेड ,सफाई वाली ,सब्जी बेचने वाली या किसी भी महिला पर होते इस खामोश अत्याचार को होने से रोकें ....समझाएं ...बात करें ....शायद कोई बात बन जाये ....
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