गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

औरत .... . औरत .....!और औरत ......?


हमेशा की तरह आज भी वो उसज कुर्सी पर बैठी है ,शायद कोई ऐसा काम कर रही है जिसे करने में उसे मुश्किल आ रही है....छुट्टी हो चुकी है ...एक -एक कर के सभी लोग स्टाफ -रूम में इकट्ठा हो रहे हैं .....इतने दिनों बाद उसे अपने बीच देख कर सभी हैरान हैं .... आज यहाँ का माहौल बदला बदला सा है । रोज़ की तरह हल्ला - गुल्ला नहीं है ....कोई फालतू गप्पबाज़ी भी नहीं ... सभी चुप है.....छुप छुप के उसे देख रहे हैं .... गले पर दिखते निशान .... उसके भयानक कदम के साक्षी हैं ....जो देखने वालों के रोंगटे खड़े करते हैं ....दुःख देते हैं .... पूछना सभीचाहते हैं ....जानना चाहते हैं कि वो कैसी है ? आखिर उसने ऐसा क्यों किया ? क्यों उसके सब्र का बाँध टूट गया ....जो उसने आत्महत्या जैसा कदम उठाया ......



चहेरे पर थकावट है ...नीची नज़रें कर के वो अपना काम जल्द से जल्द ख़तम कर देना चाहती है ....मैं उसकी हिम्मत देख कर हैरान हूँ कि वो इतनी जल्दी स्कूल कैसे आ गई ????....चाह रही हूँ कि उसको गले लगा कर खूब रो लूँ ....जो दुःख उसकी आखों में है उसे दूर करना चाह रही हूँ ...लेकिन हिम्मत नहीं हो पा रही ....मैं इसी उधेड़बुन से नहीं उबर पाई कि वो खासी तकलीफ के साथ अपनी कुर्सी से उठती है और मेरे पास आती है .....बोलने में उसे काफी दिक्कत आ रही है .....आज उसकी आवाज़ में जोश नहीं है ....शायद दुपट्टा कुछ ज्यादा कस गया था ......दबी और थकी आवाज़ में बोली "तुम भी मुझसे मिलने नहीं आई ....किसी और से तो नहीं ....पर मुझे ये उम्मीद थी के तुम तो मिलने ज़रूर आओगी ....क्या हम लोग एक हाउस के हैं ...बस हमारी दोस्ती यहीं तक है ...."
आंसू नहीं रुक पाए ..सो बह गए .....मैं उसे अपने साथ वहाँ से पास कि क्लास में ले आई....
मैंने पूछा "अभी कहाँ रह रही हो...?"
..."ससुराल में "..उसने कहा ।
....."क्या ?.....क्या हो तुम ?...जिन लोगों ने तुम्हे मरने के लिए छोड़ दिया ....परवाह भी नहीं की ...अब भी उन्ही के साथ हो...क्यों ?"
......हाथ जोड़ कर ,भरी हुई आखों से जवाब देती है ....."मेरे दो बच्चे हैं .....और पति का बर्ताव भी बदल गया हैं......वो बुरे नहीं हैं ...... प्यार भी करते हैं... ....शायद अब सब कुछ ठीक हो जायेगा .....वो कहते हैं कि अब वो मेरा ख़याल रखेंगे...."। "अगर घर में रहना इतना मुश्किल है तो ...."
मेरी बात अभी पूरी भी नहीं होती कि वो कहती है कि "औरत की ज़िन्दगी यही है ....चाहे हम १८ वी सदी में जिए या २१ में.... औरत वहीं कि वहीं हैं .... जूतों के नीचे ...
मैंने उन्हें कई बार समझाया ...पर वो नहीं माने ....और जब तक उन्हें मेरी हालत का सही अंदाज़ा हुआ तब तक मेरी हिम्मत टूट गई थी ....."थोड़ी देर चुप रहती है फिर कहती है ..."लेकिन ये सच है कि प्यार तो वो मुझे अब भी करते हैं .... ।
उसकी ये बात मेरी समझ से परे है ... सवाल बहुत सारे थे लेकिन और कुछ पूछ सकूँ ऐसे हालात नहीं लगे ....
घडी कि तरफ देखा और बोला"घर चलने का टाइम हो गया है ....चलो मैं तुम्हे छोड़ दूंगी । "
...उसने मुझे कहा .".....नहीं तुम चलो ....उन्होंने कहा है कि वो मुझे लेने आयेंगे ....मैं यहाँ उनका इंतज़ार करूंगी ।"


........उसकी बात सुन कर मुझे लगा ये कि ....हाँ ये सच है....







औरत का मन ....कोई नहीं पढ़ सकता ...कोई नहीं.....शायद ....कोई दूसरी औरत भी नहीं.... एक टिप्पणी भेजें