शनिवार, 19 दिसंबर 2009

फितरत








सभी पहाड़ एक से नहीं होते .....कुछ ऊचे तो कुछ कम लम्बे होते हैं ....कुछ हरे भरे और कुछ...... कुछ उजड़े ...कुछ हमेशा ...हर मौसम में एक से ही रहते हैं ....






कुछ पहाड़ रंग भी बदलते हैं ...जैसे जैसे आसमान की चमकती गेंद पाला बदलती है वैसे ही ये भी बदल जाते हैं ....









सभी पहाड़ दूसरी तरफ गुजरने की इजाज़त नहीं देते .....जैसे हुकूमत करते हैं ......
हाँ ! कुछ पहाड़ों में मोड़ भरे छोटे ....लेकिन टेढ़े -मेढ़े रास्ते होते हैं ...गुज़रते समय डर का एहसास करवाते हैं ...ये ... ।






सभी पहाड़ सूखे नहीं होते ...घने दरख्तों ....खुशबूदार फूलों और फलों से भरे होते हैं ....



और कुछ हरियाली ओढ़े हुए भी सूखे होते हैं ....











कभी कभी ऐसा लगता है जैसे कुछ पहाड़ शाप भी देते हैं ....













सभी पहाड़ आवाज़ नहीं देते ....कुछ ठंडी पुरवा के साथ ख़ामोशी से कानो के नज़दीक चुपके से कोई पैग़ाम छोड़ जाते हैं







......तो कुछ कोसों .....मीलों दूर से अपने पास बुलाते हैं ....






हाँ ! सभी पहाड़ एक से नहीं होते .......लेकिन फितरत के लिहाज़ से ..... क्या ये हम जैसे नहीं होते ?

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

तहलका -ऐ -तेलंगाना


मेरा ऐसा मानना है कि हम इतिहास से निकल कर पुनः उसी ओर मुड़ रहे हैं ...आपको यह भी बता दूँ कि यह वक्तव्य किस सन्दर्भ में दे रही हूँ ....सन १९५६ में भारत में १४ राज्य थे ..... यह संख्या वर्ष २००० तक दुगनी हो गई ..... आज़ादी के बाद भारत के तमाम छोटे बड़े हिस्सों को जोड़ कर भाषाई आधार पर राज्यों का गठन किया गया . समय -समय पर विभिन्न संशोधनों के द्वारा राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन यह कह कर किया गया कि इससे क्षेत्र विशेष का विकास हो सकेगा ....लेकिन ये आप भी जानते हैं कि (चाहे वे उत्तर - पूर्वी राज्य हों,हरियाणा हो या नवगठित झारखण्ड ,छत्तीसगढ़ या उत्तराखंड ) कितना और किनका विकास हुआ है?... हो सकता है आने वाले समय में दुगने से ज़्यादा ....या तिगुना और फिर उससे भी ज़्यादा हो जाए ....निश्चित ही मेरी इस बात से कई लोग सहमत न होंगे ....लेकिन आने वाले ५०-६० सालों में ऐसा हो जाए तो इसमे कोई बड़ा आश्चर्य नही होगा .....




अब तेलंगाना को ही ले लीजिये ....क्यों इतना हल्ला मचाया जा रहा है ....क्यों बनना चाहिए नया राज्य .....किस तरह का विकास चाहिए ...नया राज्य मात्र बन जाने से तेलंगाना का विकास हो जाएगा ....और सबसे अहम बात मौजूद परिस्तिथियों में क्या नए राज्य का गठन सम्भव है ....


किसी भी क्षेत्र विशेष को राज्य बनने के लिए जब जब राजनितिक पहल कि जाती है ...तो कई वर्षों तक उस पार्टी का उत्थान होता ही रहता है ....पार्टी अपने रजनीतिक हितों को साधने में कामयाब रहती है ....जनता उसे अपने हितों के संरक्षक के रूप में देखती है ...जबकि वास्तविकता यह है वर्तमान में देश या जनता के विकास कि किसी को चिंता ही नही है ....

रही बात विकास कि ...तो तेलंगाना को ही ले लीजिये ....आन्ध्र प्रदेश से इस क्षेत्र को इसलिए अलग किए जाने कि मान हो रही है क्योंकि वहां विकास उस गति से नही हो रहा है जिस गति से आन्ध्र के अन्य जिलों का हुआ है ....साथ ही एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि तेलंगाना सांस्कृतिक रूप से भी आन्ध्र से अलग है .....आप ही बताएं क्या आपको लगता है भारत जैसे देश में ये तर्क नए राज्य के निर्माण के लिए पर्याप्त हैं .....कुछ एक राज्यों को छोड़ दे तो शेष आदि राज्यों के कई क्षेत्रों का हाल तेलंगाना के जैसा ही है .....रही बात सांस्कृतिक विविधता कि ....तो हमारे देश से ज़्यादा विविधता और किस देश में होगी जहाँ हर ५० मील पर बोली ,रहन -सहन ,रीत-रिवाज़
आदि बदल जाते है .....



तेलंगाना के सन्दर्भ में विभाजन सामाजिक से ज्यादा राजनितिक प्रभुत्व का मुद्दा बन गया है । इसके अलावा यह गठन कठिन भी है कठिन इस लिए है क्योंकि किसी भी .क्षेत्र विशेष को राज्य बनाने की संविधान में एक सुनिश्चित प्रक्रिया है ...एस प्रक्रिया क अनुसार पहले राज्य विधान सभा में एक प्रस्ताव पारित किया जाना चाहिए ,जिसमें ऐसे किसी नवीन राज्य की इच्छा का समर्थन किया गया हो ...राज्य विधान सभा से भेजा प्रस्ताव संसद में रखा जाता है और संसद में बहुमत से पारित होने के बाद प्रस्ताव को राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाता है ... इस लम्बी और जटिल प्रक्रिया के बाद ही नवीन राज्य का गठन संभव है ...


तेलंगाना को राज्य बनाने के मामले में सबसे बड़ी अड़चन राज्य विधान सभा से न मिलने वाला समर्थन है ...बड़ी या छोटी किसी भी तरह की राजनितिक पार्टी का इस ओर सकारात्मक फिलहाल नज़र नहीं आ रहा ....
एक प्रकार से यह कहा जा सकता है की टी .आर .एस . द्वारा समर्थित राजनितिक स्वार्थ साधने वाले मुद्दे को अब काबू में लाना अब मुश्किल है .... राज्य बने या न बने चन्द्रशेखर राव तो मसीहा बन गए और अगर राज्य बने तो क्षेत्र के नाम पर अपना विकास तो हो ही जायेगा
यहाँ तेलंगाना की आग बुझने का नाम नहीं ले रही वहां मायावती ने अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए इस हवन कुंड में उत्तर प्रदेश के विभाजन की नई सामग्री डाल दी है ...ऐसी ही आवाज़ विदर्भ और अन्य क्षेत्रों से उठती ही रहती है ....कुल मिलकर इस राजनीती के इस 'फेस्टिव -सीज़न ' का फायदा ऐसी सभी राजनितिक पार्टियाँ उठाना चाहती हैं ... कोई पूछे इनसे कि विभाजन करते करते कहीं हम फिर से छोटे -छोटे ठिकानो और रियासतों या राजा और नवाबों युग में तो नहीं जाने वाले ...!

......... विचारणीय बात यह है कि निज स्वार्थों की पूर्ती के लिए इसी तरह की मुहीम हर राज्य की क्षेत्रीय पार्टी छेड़ दे ...तो क्या आप मेरे द्वारा कही गई बात से सहमत नहीं होंगे ...?

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

क्यों कैट पर भारी पड़े माउस ...?



हाल ही में कैट प्रतियोगी परीक्षा आयोजित की गई । पहली बार यह परीक्षा ऑनलाइन ली गई लेकिन हश्र क्या हुआ इससे सभी वाकिफ हैं । एस वाकिये से जो बात उभर के सामने आती है वो ये कि शिक्षा के उच्च स्तर पर भी हमारे संसाधन उतने ही लचर हैं जितने कि प्राथमिक या माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर के हैं । भारतीय प्रतियोगी परीक्षाएं चाहे वे प्रशासनिक सेवाएँ हो या कैट ,मैट या अन्य कोई प्रतियोगी परीक्षा एक मानक स्तर प्राप्त कर चुकी हैं । लेकिन अध्ययन और अध्यापन कि ओर दृष्टिपात करें तो हम पाएंगे की तमाम कोशिशों के बाद भी हमारा देश अध्यापन के तकनिकी क्षेत्र में काफी पिछड़ा हुआ है । यह अलग बात है की अध्यापन की नई तकनीकों की खोज जारी है किन्तु क्या इन तकनीकों को लागू करने में हम सक्षम हैं ?

नित नई परीक्षाएं जन्म ले रही हैं साथ ही नई पद्धतियाँ निर्धारित की जा रही हैं . शिक्षा भी एक कोर्पोरेट उद्योग की भाति दिन दूनी रात चौगुनी उन्नत्ति कर रहा है .ज्यादा दूर न जा कर केवल प्राथमिक स्तर पर गौर करें तो आप पायेंगे की गली मोहल्ले में सब्जी-भाजी की दूकाने उतनी नहीं होंगी जितने प्राइमरी स्कूल . अछे स्कूलों में दाखिला दिलाना चाहते हैं तो कई दिनों तक कतारों में लग कर भी सफलता मिल जाए तो अपने आप को धन्य मानिए .





अध्यापन पद्धति की चर्चा करें तो हम पायेंगे कि प्राथमिक स्तर से लेकर कॉलेज तक एक पद्धति बहुत लोकप्रिय है जिसे लेक्चर मैथड कहा जाता है और मूल्यांकन का भी यही हाल है . कहने का तात्पर्य यह है कि महज़ अच्छी बिल्डिंग , सुसज्जित कक्षा-कक्ष,प्रशिक्षित अद्यापक ,कुछ सुंदर सहायक शिक्षण सामग्री होने से स्कूल अच्छा है इसकी गारंटी हो जाती है...?

अब भी उन्ही पारंपरिक तौर -तरीकों से अध्यापन और मूल्यांकन किया जा रहा है , जिन से किसी ज़माने में हमारे माता -पिता का हुआ करता था . तात्पर्य यह है कि उन्नत संसाधन होना जितना आवश्यक है उतना ही ज़रूरी उन संसाधनों का उपयोग. प्रशिक्षित शिक्षक होने के साथ-साथ नवीन तकनीकों से अद्यापन भी ज़रूरी है .इसके साथ यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि मूल्यांकन भी नवीन पद्धतियों से हो ....पूर्व समय में पारंपरिक शिक्षा पद्धति सामानयज्ञों को तैयार करने में अव्वल थी ....लेकिन आज ज़माना विशेषज्ञता का है .





.... हो सकता है कोई बच्चा जितना अच्छा लिखने के कौशल में अंक ला सकता हो ...उतना पढने या रचनात्मक कौशल में न ला सके .....इसके विपरीत कोई विद्यार्थी ऐसा भी हो सकता है जो क्रियात्मक कौशल में उम्दा हो मगर लिखने में कमज़ोर ...अतः आवश्यता है प्रत्येक कौशल के अनुसार परीक्षा पद्धति विकसित करने की साथ ही नवीन संसाधनों के त्वरित विकास की . ताकि प्रारंभिक स्तर से ही विद्यार्थी विशेष की रूचि का पता चल सके ....१२ वीं कक्षा के बाद वह अँधेरे में तीर चलाते सिपाही जैसा न बने .... और आने वाले समय में कोई माउस किसी कैट पर भरी न पड़े