मेरा ऐसा मानना है कि हम इतिहास से निकल कर पुनः उसी ओर मुड़ रहे हैं ...आपको यह भी बता दूँ कि यह वक्तव्य किस सन्दर्भ में दे रही हूँ ....सन १९५६ में भारत में १४ राज्य थे ..... यह संख्या वर्ष २००० तक दुगनी हो गई ..... आज़ादी के बाद भारत के तमाम छोटे बड़े हिस्सों को जोड़ कर भाषाई आधार पर राज्यों का गठन किया गया . समय -समय पर विभिन्न संशोधनों के द्वारा राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन यह कह कर किया गया कि इससे क्षेत्र विशेष का विकास हो सकेगा ....लेकिन ये आप भी जानते हैं कि (चाहे वे उत्तर - पूर्वी राज्य हों,हरियाणा हो या नवगठित झारखण्ड ,छत्तीसगढ़ या उत्तराखंड ) कितना और किनका विकास हुआ है?... हो सकता है आने वाले समय में दुगने से ज़्यादा ....या तिगुना और फिर उससे भी ज़्यादा हो जाए ....निश्चित ही मेरी इस बात से कई लोग सहमत न होंगे ....लेकिन आने वाले ५०-६० सालों में ऐसा हो जाए तो इसमे कोई बड़ा आश्चर्य नही होगा .....
अब तेलंगाना को ही ले लीजिये ....क्यों इतना हल्ला मचाया जा रहा है ....क्यों बनना चाहिए नया राज्य .....किस तरह का विकास चाहिए ...नया राज्य मात्र बन जाने से तेलंगाना का विकास हो जाएगा ....और सबसे अहम बात मौजूद परिस्तिथियों में क्या नए राज्य का गठन सम्भव है ....
किसी भी क्षेत्र विशेष को राज्य बनने के लिए जब जब राजनितिक पहल कि जाती है ...तो कई वर्षों तक उस पार्टी का उत्थान होता ही रहता है ....पार्टी अपने रजनीतिक हितों को साधने में कामयाब रहती है ....जनता उसे अपने हितों के संरक्षक के रूप में देखती है ...जबकि वास्तविकता यह है वर्तमान में देश या जनता के विकास कि किसी को चिंता ही नही है ....
रही बात विकास कि ...तो तेलंगाना को ही ले लीजिये ....आन्ध्र प्रदेश से इस क्षेत्र को इसलिए अलग किए जाने कि मान हो रही है क्योंकि वहां विकास उस गति से नही हो रहा है जिस गति से आन्ध्र के अन्य जिलों का हुआ है ....साथ ही एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि तेलंगाना सांस्कृतिक रूप से भी आन्ध्र से अलग है .....आप ही बताएं क्या आपको लगता है भारत जैसे देश में ये तर्क नए राज्य के निर्माण के लिए पर्याप्त हैं .....कुछ एक राज्यों को छोड़ दे तो शेष आदि राज्यों के कई क्षेत्रों का हाल तेलंगाना के जैसा ही है .....रही बात सांस्कृतिक विविधता कि ....तो हमारे देश से ज़्यादा विविधता और किस देश में होगी जहाँ हर ५० मील पर बोली ,रहन -सहन ,रीत-रिवाज़
आदि बदल जाते है .....
तेलंगाना के सन्दर्भ में विभाजन सामाजिक से ज्यादा राजनितिक प्रभुत्व का मुद्दा बन गया है । इसके अलावा यह गठन कठिन भी है कठिन इस लिए है क्योंकि किसी भी .क्षेत्र विशेष को राज्य बनाने की संविधान में एक सुनिश्चित प्रक्रिया है ...एस प्रक्रिया क अनुसार पहले राज्य विधान सभा में एक प्रस्ताव पारित किया जाना चाहिए ,जिसमें ऐसे किसी नवीन राज्य की इच्छा का समर्थन किया गया हो ...राज्य विधान सभा से भेजा प्रस्ताव संसद में रखा जाता है और संसद में बहुमत से पारित होने के बाद प्रस्ताव को राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाता है ... इस लम्बी और जटिल प्रक्रिया के बाद ही नवीन राज्य का गठन संभव है ...
तेलंगाना को राज्य बनाने के मामले में सबसे बड़ी अड़चन राज्य विधान सभा से न मिलने वाला समर्थन है ...बड़ी या छोटी किसी भी तरह की राजनितिक पार्टी का इस ओर सकारात्मक फिलहाल नज़र नहीं आ रहा ....
एक प्रकार से यह कहा जा सकता है की टी .आर .एस . द्वारा समर्थित राजनितिक स्वार्थ साधने वाले मुद्दे को अब काबू में लाना अब मुश्किल है .... राज्य बने या न बने चन्द्रशेखर राव तो मसीहा बन गए और अगर राज्य बने तो क्षेत्र के नाम पर अपना विकास तो हो ही जायेगा
यहाँ तेलंगाना की आग बुझने का नाम नहीं ले रही वहां मायावती ने अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए इस हवन कुंड में उत्तर प्रदेश के विभाजन की नई सामग्री डाल दी है ...ऐसी ही आवाज़ विदर्भ और अन्य क्षेत्रों से उठती ही रहती है ....कुल मिलकर इस राजनीती के इस 'फेस्टिव -सीज़न ' का फायदा ऐसी सभी राजनितिक पार्टियाँ उठाना चाहती हैं ... कोई पूछे इनसे कि विभाजन करते करते कहीं हम फिर से छोटे -छोटे ठिकानो और रियासतों या राजा और नवाबों युग में तो नहीं जाने वाले ...!
......... विचारणीय बात यह है कि निज स्वार्थों की पूर्ती के लिए इसी तरह की मुहीम हर राज्य की क्षेत्रीय पार्टी छेड़ दे ...तो क्या आप मेरे द्वारा कही गई बात से सहमत नहीं होंगे ...?
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