बचपन ....कितनी अच्छी है वो दुनिया ..जब हम दुनियादारी से दूर होते हैं ....मगर हर एक दिन दुनियादारी के प्रपंचों के करीब होते जाते हैं....हम सब कुछ सीखते जाते हैं। वो जो हम घर में सीखते हैं ... स्कूल-कॉलेज , आस-पड़ोस ,दोस्तों ,फिल्मों या नेट सभी से तो हम अपनी जानकारी में उत्तेरोतर वृद्धि करते रहते हैं। अच्छाई-बुराई,मस्ती-मज़ा ,दुःख-तकलीफ ,रोज़मर्रा के संघर्षों से दो-चार होना ,घर- दफ्तर ,अपने-परायों के बीच निजी ज़रूरतों और हकों के लिए ,कभी मान -मनुहार करते हैं ..तो कभी हकों के लिए लड़ते हैं ...संघर्ष करते हैं .
क्या वास्तव में हम अपने हकों को जानते हैं? क्या हैं हमारे अधिकार? क्या हमें अपने अधिकारों की जानकारी है? क्या हमें पता है की हमारे पास अपने अधिकारों को जानने का अधिकार है? ...... हमारे पास सूचना का अधिकार है ....
सूचना के अधिकार की संकल्पना कहाँ से शुरू हुई....इस बात का जवाब काल क्रम में अंकित है , लेकिन सोचने का विषय यह है कि 'सूचना' की उत्पत्ति कहाँ से हुई होगी ? मानव आदि काल से ही खोजी रहा है..तभी नित नई खोज से उसका विकास भी हुआ है। मन -मस्तिष्क में क्या? क्यों ? कैसे?किसका?कहाँ?और न जाने कितने सवालों ने जनम लिया होगा ,जिसके बाद जानने की इच्छा जागृत हुई होगी । ज्ञान के प्रकाश में अनेक अन्वेषण और अनुसंधान होते चले गए ..साथ ही सूचनाओं की भी उत्पत्ति और विस्तार होता चला गया ।
ज्ञान और सूचनाओं की अभिवृद्धि के साथ मनुष्य विकास के पथ पर आगे बढ़ता गया ( सूचना क्या है? यह एक विस्तृत विषय है, जिसकी चर्चा फिर कभी करना चाहूंगी । ) आदि-मानव अब प्रजा और उसके बाद नागरिक बन गया वहीं झुंड या कबीला पहले जनपद और फिर राष्ट्र में बदल गया । विकास की एक लम्बी यात्रा के बाद सभ्य समाज की अवधारणा उपजी ,जहाँ व्यक्ति को नागरिक तथा क्षेत्र विशेष को देश कहा गया ।
इसके बाद बात आती है अधिकारों की ....अधिकारों की शुरुआत कहाँ से हुई । मेरे विचार से इसका सीधा सा जवाब ये हो सकता है की अज्ञात काल में किसी प्रभुत्वसंपन्न दमनकारी व्यक्ति या वर्ग ने अल्पज्ञानियों का शोषण किया होगा और उस दमन के विरुद्ध जब सबसे पहला विद्रोह हुआ होगा तभी से अधिकारों का जनम हुआ होगा ।
निश्चित ही प्राणी होने के नाते हमारे बहुत से अधिकार हैं ,जो हमें प्रकृति ने दिए हैं जैसे साँस
लेने का अधिकार या भूख लगने पर पोषण प्राप्त करने का अधिकार , किंतु इन अधिकारों का महत्व आदि काल तक सीमित था ऐसा नही है ये अधिकार आज भी मूलभूत अधिकारों में शामिल हैं। वर्तमान की आकांक्षाएं और मूल्यों के अनुसार अधिकार असंख्य हैं । चूँकि आकांक्षाओं maiन दिन -प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही है और मूल्य
समय के साथ परिवेर्तित होते जा रहे हैं ।
नैसर्गिक स्वतंत्रता के साथ -साथ नागरिकों को अब व्यक्तिगत,राजनैतिक ,आर्थिक , सांस्कृतिक विधिक ,धार्मिक ,नैतिक ,और संवैधानिक स्वतंत्रता चाहिए । इन सब स्वतंत्रताओं का उपयोग वह व्यतिगत , राजनैतिक धार्मिक,आर्थिक ,सांस्कृतिक और विधिक अधिकारों के तहत करना चाहता है , लेकिन सभी अधिकारों का उपयोग करने क लिए इनके ज्ञान की आवश्यकता है ...ज़रूरत है जानकारी की .....
................. ज़रूरत है सूचना के अधिकार को जानने की .....
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शनिवार, 20 जून 2009
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कुछ अपने बारे में...
- binser(Dr. Priyanka Sharma)
- देवभूमि गढ़वाल से मेरा पैतृक और भावात्मक रिश्ता है | उम्र के २० -२५ साल जिस जगह बिता देते हैं ....हम वहीं के होकर रह जाते हैं...मेरी परवरिश राजस्थान में हुई | थार के रेगिस्तान की रंग -बिरंगी संस्कृति है ...जो पहाडी परिवेश से काफी अलग है | 'बिनसर' गढ़वाली बोली का एक शब्द है ..जिसका अर्थ नव प्रभात है | निश्चित ही यहाँ ये प्रभात मेरे विचारों से जुडी हुई है ... बिनसर के पाठकों से यह अनुरोध है कि पोस्ट को पढने के बाद अपनी टिपण्णी अवश्य दे ...निश्चित ही यह लेखन के क्षेत्र में मुझ जैसे लेखक को नई और सकारात्मक उर्जा देगा ....
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